- ज़ाहिद ख़ान
'इंकलाब जि़न्दाबाद' और 'साम्राज्यवाद मुर्दाबाद' ये इंकलाबी नारे देकर, जंग-ए-आज़ादी में फैसलाकुन मोड़ लाने वाले शहीद-ए-आज़म भगत सिंह भारत ही नहीं, बल्कि समूचे भारतीय उपमहाद्वीप की सांझा विरासत का क्रांतिकारी प्रतीक हैं। अविभाजित भारत के लायलपुर बंगा में जन्मे भगत सिंह बचपन से ही क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने लगे थे। गदर पार्टी के क्रांतिकारी आंदोलन के जानिब उनका गहरा आकर्षण था। ख़ास तौर पर शहीद करतार सिंह सराभा उनके आदर्श थे। जिनका फोटो वे हमेशा अपनी जेब में रखते थे।
भगत सिंह ने जैसे ही होश संभाला, क्रांतिकारी संगठन 'नौजवान भारत सभा' और 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' से जुड़ गए। यह बतलाना भी लाजि़मी होगा कि इस संगठन के नाम में 'सोशलिस्ट' शब्द उन्हीं के सुझाव पर जुड़ा था। भगत सिंह को बचपन से पढ़ने-लिखने का जुनूनी शौक था। साल 1924 में जब उन्होंने लिखना शुरू किया, तब उनकी उम्र महज़ सत्रह साल थी। 'प्रताप' (कानपुर), 'महारथी' (दिल्ली), 'चॉंद' (इलाहाबाद), 'वीर अर्जुन' (दिल्ली) आदि समाचार पत्रों और पंजाबी पत्रिका 'किरती' में उनके कई लेख प्रकाशित हुए। हिंदी, पंजाबी, उर्दू व अंग्रेज़ी चारों भाषाओं पर उनका समान अधिकार था। छोटी सी ही उम्र में उन्होंने ख़ूब पढ़ा। दुनिया को करीब से देखा, समझा और व्यवस्था बदलने के लिए जी भरकर कोशिशें कीं।
अंग्रेज़ सरकार के 'पब्लिक सेफ्टी बिल' व 'ट्रेड डिस्प्यूट बिल' के ख़िलाफ उन्होंने 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंककर, अपनी गिरफ़्तारी दी। बम फेंकने का मकसद किसी को घायल करना, जान से मारना नहीं था। बल्कि बहरी अंग्रेज़ हुकूमत के कान खोलना था। लाहौर की सेन्ट्रल जेल में बिताए अपने दो सालों में भगत सिंह ने ख़ूब अध्ययन, मनन, चिंतन व लेख़न किया। किताब 'हिस्ट्री ऑफ दि रेव्युल्यूशनरी मूवमेंट इन इंडिया', 'दि आईडियल सोशलिज्म', 'एट दि डोर ऑफ डेथ' और अपनी जीवनी उन्होंने जेल के कठिन हालात में ही लिखी थीं। भगत सिंह ने जेल के अंदर से ही न सिर्फ क्रांतिकारी आंदोलन को बचाए रखा, बल्कि उसे विचारधारात्मक स्पष्टता भी प्रदान की।
7 अक्टूबर, 1930 को बरतानिया हुकूमत ने सरकार के ख़िलाफ क्रांति का बिगुल फूंकने के इल्ज़ाम में भगत सिंह को फांसी की सज़ा सुनाई। सज़ा सुनाए जाने के पॉंच महीने बाद 23 मार्च, 1931 को उनको दो साथियों सुखदेव और राजगुरु के साथ फांसी पर चढ़ा दिया गया। फांसी के पहले 3 मार्च को भगत सिंह ने अपने छोटे भाई कुलतार को भेजे एक ख़त में अपने जज़्बात कुछ इस तरह से पेश किए थे,'उसे ये िफक्र है हरदम, नया तज़र्-ए-ज़फा क्या है/हमें ये शौक है देखें, सितम की इंतिहा क्या है/....हवा में रहेगी मेरे ख़याल की बिजली/ये मुश्ते ख़ाक है फानी, रहे न रहे।'' फांसी की सज़ा पर भगत सिंह ज़रा से भी विचलित नहीं हुए और हॅंसते-हॅंसते फांसी के तख़्ते पर चढ़ गए। महज़ साढ़े तेईस साल की छोटी—सी उम्र में शहादत के लिए फांसी का फंदा हॅंसकर चूमने वाले, क्रांतिकारी भगत सिंह सिर्फ जोशीले नौजवान नहीं थे, जो कि जोश में आकर अपने वतन पर मर मिटे थे। उनके दिल में देशभक्ति के जज़्बे के साथ एक सपना था। भावी भारत की एक तस्वीर थी। जिसे साकार करने के लिए ही उन्होंने अपना सर्वस्व: देश पर न्यौछावर कर दिया।
फांसी से पन्द्रह दिन पहले उन्होंने अपने एक साथी से कहा था, 'अगर मुझे छोड़ दिया गया, तो अंग्रेज़ों के लिए मैं एक मुसीबत बन जाऊॅंगा। अगर मुस्कुराहटों की माला पहने मैं मर गया, तो हिंदुस्तान की हर मॉं अपने बच्चे को भगत सिंह बनाना चाहेगी और इस तरह आज़ादी की लड़ाई में सैकड़ों बहादुर पैदा होंगे, तब इस शैतानी ताकत के लिए क्रांति का यह मार्च रोकना बहुत मुश्किल होगा।' इतिहास गवाह है, भगत सिंह की फांसी के बाद,अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ मुल्क में जो जनज्वार उभरा, वह फिर थामे नहीं थमा। कुछ बरसों में ही अंग्रेज़ों को आख़िरकार हिंदुस्तान से अपनी विदाई लेनी पड़ी।
भगत सिंह सिर्फ क्रांतिकारी ही नहीं, बल्कि युगदृष्टा, स्वप्नदर्शी, विचारक भी थे। वैज्ञानिक, ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामाजिक समस्याओं के विश्लेषण की उनमें अद्भुत क्षमता थी। भगत सिंह ने कहा था कि 'मेहनतकश जनता को आने वाली आज़ादी में कोई राहत नहीं मिलेगी।' यही नहीं अपनी मॉं को लिखे एक ख़त में उन्होंने कहा था, 'मॉं, मुझे इस बात में बिल्कुल शक नहीं, एक दिन मेरा देश आज़ाद होगा। मगर मुझे डर है कि 'गोरे साहब' की खाली की हुई कुर्सी में काले/भूरे साहब बैठने जा रहे हैं।' उनकी भविष्यवाणी अक्षरश: सच साबित हुई। देश आज़ाद ज़रूर हो गया, लेकिन सत्ताधारियों का किरदार और आम आदमी के जानिब उनका बर्ताव नहीं बदला। आज़ादी के बाद मुल्क में जिन आर्थिक सुधारों का तसव्वुर क्रांतिकारियों ने किया था, वह आज तक नहीं हुआ है। अमीर-गरीब के बीच दूरी ख़त्म होने की बजाए, और ज़्यादा बढ़ी है।
आज देश में प्रतिक्रियावादी शक्तियों की ताकत पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ी है। पूॅंजीवाद, बाज़ारवाद, साम्राज्यवाद के नापाक गठबंधन ने सारी दुनिया को अपने आगोश में ले लिया है। अपने ही देश में हम आज दुष्कर परिस्थितियों में जी रहे हैं। चहुॅं ओर समस्याएं ही समस्याएं हैं। कहीं समाधान नज़र नहीं आ रहा है। ऐसे माहौल में भगत सिंह के फांसी पर चढ़ने से कुछ समय पूर्व के विचार याद आते हैं,'जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है, तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वह हिचकिचाते हैं, इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्प्रिट पैदा करने की ज़रूरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियॉं जनता को गलत रास्ते में ले जाने में सफल हो जाती हैं। इससे इंसान की प्रगति रुक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है। इस परिस्थिति को बदलने के लिए यह ज़रूरी है कि क्रांति की स्प्रिट ताज़ा की जाए। ताकि इंसानियत की रूह में एक हरकत पैदा हो।' अफसोस, आज़ादी मिलने के बाद नई पीढ़ी में क्रांति की वह स्प्रिट उत्तरोत्तर कम होती गई। जिसके परिणामस्वरूप आज हमें कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। स्वतंत्र भारत में बढ़ते साम्प्रदायिक रुझान और प्रतिक्रियावादी शक्तियों के उभार ने भगत सिंह की चिंताओं को सही साबित किया है।
भगत सिंह साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद के घोर विरोधी थे। सच मायने में वे भारत में समाजवादी व्यवस्था कायम करना चाहते थे। भगत सिंह की सारी जि़ंदगानी पर यदि हम गौर करें, तो उनकी जि़न्दगी के आख़िरी चार साल बेहद इंकलाबी थे। इन चार सालों में भी, उन्होंने अपने दो साल जेल में बिताये। लेकिन इन चार सालों में उन्होंने एक सदी का लंबा सफर तय किया। क्रांति की नई परिभाषा दी। अंग्रेज़ी हुकूमत, नौजवानों में भगत सिंह की बढ़ती लोकप्रियता और क्रांतिकारी छवि से परेशान थी। लिहाज़ा अवाम में बदनाम करने के लिए भगत सिंह को आतंकवादी तक साबित करने की कोशिश की गई। मगर क्रांति के बारे में ख़ुद, भगत सिंह के विचार कुछ और थे।
वह कहते थे,'क्रांति के लिए ख़ूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा को कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय यह है कि वर्तमान व्यवस्था जो खुले तौर पर अन्याय पर टिकी हुई है, बदलनी चाहिए।' भगत सिंह ने क्रांति शब्द की व्याख्या करते हुए कहा था,'क्रांति से हमारा अभिप्राय अन्तत: एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था से है, जिसको इस प्रकार के घातक हमलों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा वर्ग की प्रभुसत्ता को मान्यता हो।' यानी भगत सिंह हक, इंसाफ की लड़ाई में हिंसा को नाजायज़ मानते थे। उनकी लड़ाई सिर्फ व्यवस्था से थी। आदमी का आदमी के द्वारा जो शोषण होता है, उसके ख़िलाफ थी। सत्ता में सर्वहारा वर्ग काबिज़ हो, यही उनकी जि़ंदगी का आख़िरी मकसद था। भगत सिंह आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके विचार हमें एक नई क्रांति की राह दिखलाते हैं।